Wednesday, October 26, 2011

दवा कारोबार पर बढ़ता विदेशी कब्जा

दवा कारोबार पर बढ़ता विदेशी कब्जा
देश के दवा कारोबार पर विदेशी कंपनियों का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है, एक के बाद एक छोटी-बड़ी भारतीय दवा कंपनियाँ विदेशी कंपनियों के हाथो बिकती जा रही है, जिससे भारतीय दवा कंपनियों पर विदेशी कंपनियों का कब्जा शुरू हो गया है
वर्ष 2001 में दवा क्षेत्र को सौ फीसदी विदेशी निवेश के लिये खोला गया था और उस समय से लेकर अब तक कई भारतीय कंपनियाँ विदेशी हाथो में जा चुकी है छोटी कंपनियों में निर्णायक हिस्सेदारी खरीदने का चलन तो नब्बे के दशक से ही शुरु हो गया था लेकिन बड़ी कंपनियों के बिकने का सिलसिला पिछले पाच साल में जोर पकड चुका है इस कड़ी में सबसे पहले अगस्त 2006 में नामी भारतीय दवा कम्पनी मैट्रिक्स लैब को अमेरिकी कम्पनी मायलान ने खरीदा था इसके बाद अप्रैल 200८ में डाबर फार्मा का फ्रेसियस कैबी ने जून २००८ में रैनबेक्सी का दायची सैक्यो ने, जुलाई 2008 में शांता बायोटेक का सनोफी अवन्तिस ने, दिसम्बर २००९ में आर्किड कैमिकल्स का होसपीरा ने और मई २०१० में पीरामल हेल्थकेयर का एबट लैबोरेट्रीज ने अधिग्रहण कर लिया था पीरामल हेल्थकेयर की गिनती देश की दस सबसे बड़ी कंपनियों में होती थी रैबेक्सी के बाद विदेशी हाथो में जाने वाली यह दूसरी बड़ी कम्पनी है
गौर करने लायक बात यह है कि पीरामल और रैनबेक्सी जैसी कंपनियों को खरीदने के बाद विदेशी कम्पनियाँ भारतीय दवा बाजार में चोटी पर पहुंच गई है
मिसाल के तौर पर पीरामल के अधिग्रहण के बाद अमेरिका कि एबट सात फीसद हिस्सेदारी के साथ भारत कि सबसे बड़ी दवा कंपनियों में से तीन विदेशी है और यह तादाद बढ़ने वाली है क्योकि विदेशी कम्पनियाँ किसी भी कीमत पर घरेलू कंपनियों को खरीदना चाहती है
सवाल उठता है कि भारतीय दवा कम्पनीयों में बहुराष्टीय कंपनियों कि इस कदर दिलचस्पी के क्या कारण है? असल में भारत और चीन समेत दुनिया के तमाम विकासशील देशो में लोगों कि आमदनी बढ़ने के साथ ही स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता भी बढती ही जा रही है २०२० तक उभरते देशो में दवा कारोबार चार सौ अरब डालर को पार कर जाएगा और इसमे अकेले भारतीय बाजार कि हिस्सेदारी चालीस अरब डालर से ज्यादा होगी विकसित देशो के दवा बाजार में विस्तार कि संभावनाए नगण्य है भारी प्रर्तिस्पर्धा के चलते दवा कंपनियों के मुनाफे में कमी आ रही है और विकसित देशो का दवा कारोबार महज एक फीसद कि रफ्तार से बढ़ रहा है जाहिर है कि कोई भी बहुराष्टीय कम्पनियाँ अपार सभावनाओं वाले इस बाजार को अनदेखा नहीं कर सकती ये बहुराष्टीय कम्पनियाँ दो रणनीतियो पर काम करती है पहली किसी भी कीमत पर स्थानीय दवा कंपनियों का सफाया करके घरेलू बाजार पर कब्जा करना और दूसरी एकाधिकार होने के बाद दवाओं की कीमतों में इजाफा करके मुनाफ़ा कमाना २००७ में भारतीय दवा बाजार में विदेशी कंपनियों कि हिस्सेदारी पन्द्रह फीसद थी वही २०१० में यह आकड़ा पचीस फीसद को पार कर गया है जानकारों के मुताबिक़ आगामी पाँच सालो में भारत के आधे से ज्यादा दवा कारोबार पर विदेशी कंपनियों का कब्जा हो जाएगा दिक्कत यही से शुरू होती है बहुराष्टीय कम्पनियाँ बाजार पर नियंत्रण करने के बाद कीमतों में इजाफा करना शुरू कर देती है जब एक बार ये कम्पनियाँ दवाओं के दाम बढाना शुरू करेगी तो कम संसाधनों वाली छोटी दवा कम्पनियाँ अपने आप दवाब में आ जायेगी ऐसे में सारा खामियाजा गरीब जनता को भुगतना पडेगा जिसकी जेब पर महंगी दवाओं के जरिये डाका डाला जाएगा अब बहुराष्टीय कम्पनियाँ भारतीय दवा कम्पनियों को हथिया कर एक तीर से दो निशाने साधना चाहती है

भारत जैसे विकासशील देश में मरीज के लिये दवाओं कि कीमत बेहद अहम है राष्टीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक़ हमारे यहाँ इलाज के कुल खर्च में अस्सी फीसद लागत दवाओं कि होती है जिस देश में अस्सी करोड लोग दो जून कि रोटी का भी जुगाड नहीं कर पाते हो वहाँ पर महंगी दवाएं कितने लोग खरीद पाएंगे, इसका अनुमान लगाया जा सकता है
भारतीय दवा उद्योग के वजुद पर छाए इस संकट के गंभीर परिणाम देश को भुगतने पड़ सकते है अभी तो केवल पाचँ कम्पनिया बिकी है, लेकिन बहुराष्टीय कंपनियों ने डाक्टर रेड्डीज, अरबिंदो फार्मा, सिप्ला और जायडस कईदिला समेत बीस बड़ी भारतीय दवा कम्पनिया पर नजरे गडा रखी है घरेलू दवा कम्पनियों को बहुराष्टीय कम्पनिया इतनी आकर्षक कीमत कि पेशकश कर रही है जो भविष्य में इस कारोबार से होने वाली आमदनी और अनुमानित वृद्दि के मुकाबले कही ज्यादा है जाहिर है सरकार के असहयोगी रवैये के कारण दवा कम्पनिया ज्यादा मुनाफे वाले क्षेत्रो कि और रुख कर रही है अगर देशी कंपनियों के अधिग्रहण का सिलसिला जारी रहा तो सस्ती जेनेरिक दवाओं का सकट गहरा जाएगा बहुराष्टीय कम्पनिया बाजार में हिस्सेदारी बढते हि कीमतों में बढोतरी करेगी जनता को इस संकट से बचाने के लिये सरकार को दवा उद्योग की सेहत सुधारने कि और ध्यान देना होगा

अनिल
शोधकर्त्ता है)
संपर्क - 139,कावेरी छात्रावास, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय,नई दिल्ली-67
ईमेल - anil.ajger@gmail.com, mob 9650214651

Monday, October 10, 2011

भारत में अंग्रेज़ी बनाम हिंदी

भारत में अंग्रेज़ी बनाम हिंदी

दिल्ली में, जहाँ मैं रहता हूँ उसके आस-पास अंग्रेज़ी पुस्तकों की तो दर्जनों दुकाने हैं, हिंदी की एक भी नहीं। हक़ीक़त तो यह है कि दिल्ली में मुश्किल से ही हिंदी पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी। टाइम्स आफ इंडिया समूह के समाचार पत्र नवभारत टाइम्स की प्रसार संख्या कहीं ज़्यादा होने के बावजूद भी विज्ञापन दरें अंग्रेज़ी अख़बारों के मुकाबले अत्यंत कम हैं। इन तथ्यों के उल्लेख का एक विशेष कारण है। हिंदी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली पाँच भाषाओं में से एक है। जबकि भारत में बमुश्किल पाँच प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी समझते हैं।

कुछ लोगों का मानना है यह प्रतिशत दो से ज़्यादा नहीं है। नब्बे करोड़ की आबादी वाले देश में दो प्रतिशत जानने वालों की संख्या 18 लाख होती है और अंग्रेज़ी प्रकाशकों के लिए यही बहुत है। यही दो प्रतिशत बाकी भाषा-भाषियों पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेज़ी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो है ही, उससे भी ज़्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है।

इंग्लैंड में मुझसे अक्सर संदेह भरी नज़रों से यह सवाल पूछा जाता है तुम क्यों भारतीयों को अंग्रेज़ी के इस वरदान से वंचित करना चाहते हो जो इस समय विज्ञान, कंप्यूटर, प्रकाशन और व्यापार की अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है? तुम क्यों दंभी-देहाती (स्नॉब नेटिव) बनते जा रहे हो? मुझे बार-बार यह बताया जाता है कि भारत में संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेज़ी क्यों ज़रूरी है, गोया यह कोई शाश्वत सत्य हो। इन तर्कों के अलावा जो बात मुझे अखरती है वह है भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेज़ी का विराजमान होना। क्योंकि मेरा यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति ज़िंदा नहीं रह सकती।

आइए शुरू से विचार करते हैं। सन 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के बीस साल चार्टर का नवीकरण करते समय साहित्य को पुनर्जीवित करने, यहाँ की जनता के ज्ञान को बढ़ावा देने और विज्ञान को प्रोत्साहन देने के लिए एक निश्चित धनराशि उपलब्ध कराई गई। अंग्रेज़ी का संभवतः सबसे खतरनाक पहलू है अंग्रेज़ी वालों में कुलीनता या विशिष्टता का दंभ।

कोढ़ में खाज का काम अंग्रेज़ी पढ़ाने का ढंग भी है। पुराना पारंपरिक अंग्रेज़ी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है। मेरे भारतीय मित्र मुझे अपने शेक्सपियर के ज्ञान से खुद शर्मिंदा कर देते हैं। अंग्रेज़ी लेखकों के बारे में उनका ज्ञान मुझसे कई गुना ज़्यादा है। एन. कृष्णस्वामी और टी. श्रीरामन ने इस बाबत ठीक ही लिखा है जो अंग्रेज़ी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं है और जो भारतीय साहित्य के पंडित हैं वे अपनी बात अंग्रेज़ी में नहीं कह सकते। जब तक हम इस दूरी को समाप्त नहीं करते अंग्रेज़ी ज्ञान जड़ विहीन ही रहेगा। यदि अंग्रेज़ी पढ़ानी ही है तो उसे भारत समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़िए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से।

चलो इस बात पर भी विचार कर लेते हैं कि अंग्रेज़ी को कुलीन लोगों तक मात्र सीमित करने की बजाय वाकई सारे देश की संपर्क भाषा क्यों न बना दिया जाए? नंबर एक, मुझे नहीं लगता कि इसमें सफलता मिल पाएगी (आंशिक रूप से राजनैतिक कारणों से भी), दो, इसका मतलब होगा भविष्य की पीढ़ियों के हाथ से उनकी भाषा संस्कृति को जबरन छीनना। निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती। भारत, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया की तरह महज़ भाषाई समूह नहीं है। यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़ें इतनी गहरी है कि उन्हें सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई।

संपर्क भाषा का प्रश्न निश्चित रूप से अत्यंत जटिल है। यदि हिंदी के लंबरदारों ने यह आभास नहीं दिया होता कि वे सारे देश पर हिंदी थोपना चाहते हैं तो समस्या सुलझ गई होती। अभी भी देर नहीं हुई है। हिंदी को अभी भी अपने सहज रूप में ही बढ़ाने की ज़रूरत है और साथ ही प्रांतीय भाषाओं को भी, जिससे कि यह भ्रम न फैले कि अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की जगह हिंदी साम्राज्यवाद लाया जा रहा है। यहाँ सबसे बड़ी बाधा हिंदी के प्रति तथाकथित कुलीनों की नफ़रत है। आप बंगाली, तमिल या गुजराती पर नाज़ कर सकते हैं पर हिंदी पर नहीं। क्योंकि कुलीनों की प्यारी अंग्रेज़ी को सबसे ज़्यादा खतरा हिंदी से है। भारत में अंग्रेज़ी की मौजूदा स्थिति के बदौलत ही उन्हें इतनी ताक़त मिली है और वे इसे इतनी आसानी से नहीं खोना चाहते।

Friday, April 1, 2011

योग से भोग की तरफ बाबा रामदेव

योग से भोग की तरफ बाबा रामदेव

योग गुरू बाबा रामदेव ... भारत स्वाभिमान यात्रा निकालने जा रहे हैं। यह यात्रा दिल्ली के द्वारका उपनगर से शुरू होगी और देशभर में ..जगहों से गुजरने के बाद ..यस्थान पर आएगी। हमारे देश में राजनीति यात्राएं सत्ता तक पहुंचने का सबसे मुफीद उपाय मानी जाती हैं। लालकृष्ण आडवाणी से लेकर जगनमोहन रेड्डी तक इस बात को साबित कर चुके हैं कि गद्दी पर दावा करने के लिए राजनीतिक यात्रा रूपी हथियार का इस्तेमाल करना चाहिए। लोगों को मोह-माया से दूर रहने का उपदेश देने वालो बाबा अब पूरी तरह से
... ने कहा था कि राष्ट्रवाद भगोड़ों की अंतिम शरणस्थली होता है। बाबा रामदेव ने भी योग से राजनीति का आसन लगाने के लिए राष्ट्रवाद का सहारा लिया है। बाबा ने राजनीति के अखाड़े में उतरने की विधिवत् घोषणा तो पिछले लोकसभा चुनावों से पहले ही कर दी थी लेकिन अब बाबा ने अपना पूरा ध्यान गद्दी पर लगा दिया है। बाबा ने अपने योग शिविरों को उपयोग राजनीतिक रैली के रूप में करना शुरू कर दिया है। बाबा अपने संबोधनों में लोगों से वर्तमान भ्रष्ट राजनितिक प्रणाली को उखाड़ फेंकने का आह्वान कर रहे हैं।
ज्यादातक राजनीतिक प्रेक्षक बाबा और भारतीय जनता पार्टी में विशेष अंतर नहीं समझते हैं। उनका कहना है कि बाबा आरएसएस का नया मोहरा हैं और बाबा जिन उग्र नीतियों की वकालत कर रहे हैं, वह दरअसल नई बोतल में परोसी गई संघ की पुरानी शराब है। बाबा की संघ और भाजपा के शीर्ष नेताओं से नजदीकी कुछ हद तक इस बात की पुष्टि भी करती है। बाबा को चीन के प्रति गुस्सा, राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के दावें और भारतीय संस्कृति को बढावा देने वाली शिक्षा जैसे मुद्दें उन्हें दक्षिणपंथी विचारधारा के करीब लाते हैं। हालांकि गौर से देखने पर साफ होता है कि बाबा लंबी रणनीति के साथ राजनीति में आ रहे हैं और जो गलतियां भाजपा ने की हैं उनको वह दोहराना नहीं चाहते हैं।
ऐसा लगता है कि बाबा ने भारतीय राजनीति की तमाम धाराओं की गहराई से पड़ताल की है। बाबा ने भारतीय राजनीति की इस सच्चाई को समझ लिया कि बिना मुस्लिमों को साथ लिए सात रेसकोर्स रोड़ तक पहुंचना मुश्किल है। बाबा ने मुसलमानों को रिझाने के लिए .....के सैयद कल्मे रिज्वी को अपने अभियान से जोड़ा है, हालांकि यह बात अलग है कि रिज्वी साहब की मुस्लिम वोटों पर कितनी पकड़ है। बाबा ने दारूल देवबंद के सालाना जलसे में जाकर भी मुस्लिमों को योग का पाठ पढाया। अपनी इसी योजना के तहत बाबा जल्दी ही पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी योग केन्द्र खोलने जा रहे हैं। बाबा एक ओर मोहन भागवत के साथ मंच साझा करते हैं तो दूसरी ओर धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं। बाबा किसके हितों की रक्षा करेंगे, यह समझना मुश्किल नहीं है।
असल में बाबा येन-केन-प्रकारेण सत्ता पाना चाहते हैं और इस लक्ष्य तक पहुंचने के लिए सभी रास्तों का इस्तेमाल कर रहे हैं। बाबा देश में फैले भ्रष्टाचार को खत्म करने की बात करते हैं और उनके लिए मौत की सजा का प्रावधान करने की बात कर रहे हैं। बाबा के भारत स्वाभिमान आंदोलन/ट्रस्ट के मुख्य ....राजीव दीक्षित पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को बाबा ने नकार दिया है। राजीव दीक्षित और उनके भाई प्रदीप दीक्षित ने मिलकर .....आंदोलन को मटियामेट कर दिया है। ...ट्रस्ट को होने वाली आय में घपला करके....में लाखों का आलीशान मकान दोनों भाइयों ने बना लिया है। ऐसा लगता है ...के कार्यकर्ताओं की आवाज बाबा को सुनाई नहीं दे रही है। जाहिर है कि बाबा को पहाड़ों पर लगी आग को बुझाने चल पड़े हैं लेकिन उनके पैरों में आग लगी है।
बाबा के दाहिने हाथ समझे जाने वाले बालकृष्ण महाराज की दास्तान भी कम रोचक नहीं है। बालकृष्ण महाराज, बाबा के सभी नैतिक और अनैतिक कामों में साथ रहते हैं। आश्रम की एक महिला को बाल खींचकर निकालने का आरोप भी बालकृष् महाराज पर हैं। इस बात में की दोराय नहीं है कि बाबा न जो मुद्दें उठाएं हैं, वह सभी प्रसंगिक हैं लेकिन सवाल यह उठता है कि बाबा को अपने को अपने आस-पास फैला भ्रष्टाचार क्यों नहीं दिखाई देता है।
बाबा ने हरिद्वार के गंगा घाटों पर घूमने वाले रामू से लेकर बाबा रामदेव बनने तक का सफर भी कम हैरतअंगेज नहीं है। हरियाणा के महेन्द्रगढ जिले में जन्में इस रामनिवास यादव ने हरिद्वार के गुरूकुल कांगड़ी विश्वविद्यालयसे भारतीय संस्कृति व योग में ..स्नातक किया। इसके बाद रामनिवास यादव ने अपना नाम रामदेव किया और संन्यास लेकर जिंद जिले के गुरूकुल कलवा आश्रम में योग की शिक्षा देना शुरू किया। वर्ष 1995 में बाबा ने अपने गुरू... आचार्य कर्मवीर, आचार्य बालकृष्ण के साथ मिलकर दिव्य योग मंदिर आश्रम की स्थापना की। इस आश्रम के संचालन के लिए दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट बनाया गया और बाबा रामदेव इसके अध्यक्ष बने। ....संरक्षक, आचार्य कर्मवीर को इस ट्रस्ट का उपाध्यक्ष और ...बालकृष्ण को सचिव बनाया गया।
कहावत है कि जब माया अपना प्रभाव दिखाना शुरू करती है तो सारे रिश्ते बेमानी हो जाते हैं। जब दिव्य योग मंदिर ट्रस्ट की आमदनी बढनी शुरू हुई तो बाबा ने अपनी राह के कांटें साफ करना शुरू कर दिया। बाबा ने सबसे पहले आचार्य कर्मवीर को आश्रम से जाने को मजबूर किया जो फिलहाल पुणे के नजदीक अपना योग आश्रम चला रहे हैं। इसके बाद बाबा के गुरू ... रहस्यमय तरीके से आश्रम से गायब हो गए। बताया जाता है कि उन्होंने आश्रम का उत्तराधिकारी आचार्य कर्मवीर को घोषित किया था लेकिन बाबा खुद आश्रम के सर्वेसर्वा बन बैठे। बाबा के दाहिने हाथ माने जाने वाले आचार्य बालकृष्ण का इतिहास भी कुछ ज्यादा उजला नहीं है।
तत्कालीन परिस्थितयों ने भी बाबा को पैर जमाने में सहायता की। मनमोहन,मोंटेक की तिकड़ी ने विदेशी पूंजी के लिए भारत का दरवाजा खोला था। पूंजी का असीम प्रवाह अपने साथ मधुमेह, ह्रदय के रोग, पाचन संबंधी बीमारियां लेकर आया। इसी समय बाबा ने बहुराष्ट्रीय कमपनियों की तरह योग की पैकेंजिंग की और टीवी के माध्यम से परोसना शुरू किया। जैसा कि प्रसारण माध्यम का स्वभाव है, इस पर आने वाले लोग धीरे-धीरे सेलिब्रिटी बन जाते हैं, बाबा भी योगा गुरू बाबा रामदेव में तब्दील हो चुके थे। समय बीतने के साथ बाबा की लोकप्रियता बढती गई और बाबा के चरणों में रायनेता, प्रशासनिक अधिकारी और बड़े-बड़े कारोबारी दण्डवत करने लगे। कुछ मीडिया घरानों ने भी बाबा के दावों को बढा-चढाकर पेश किया और बाबा को घर-घर तक पहुंचाया।
सत्ता का अपना नशा होता है और जिसे इसकी लत लग जाती है फिर वह साधन की शुचिता के बारे में सोचना छोड़ देता है। बाबा करोड़ों में खेल रहे हैं और इनके योग शिविरों का प्रवेश शुल्क ही हजारों में पहुंच गया। जिन करोड़ों गरीबों के उत्थान की बाबा बात करते हैं वह कब बाबा के दायरे से बाहर हो गया शायद बाबा को भी यह बात पता नहीं है। असल में दिल्ली के नौकरशाहों की तरह वातानुकूलित गाड़ियों में घूमने वाले बाबा भी खाए-पिए चंद शहरी लोगों में भारत देखने के भ्रम में जी रहे हैं। जिस देश की 80 फीसदी आबादी 20 रूपए से भी कम में दिन गुजारती है, क्या बाबा के महंगे शिविरों और दवाइयों तक उसकी पहुंच है? क्या बाबा के टीवी कार्यक्रम देखने का समय और साधन उसके पास हैं?
बाबा काला धन वापस लाने की मांग पुरजोर तरीके से उठा रहे हैं। इससे किसी को आपत्ति नहीं है और निश्चित रूप से काला धन देश में लाया जाना चाहिए लेकिन बाबा ने जो 80 हजार करोड़ रूपए का साम्राज्य खड़ा किया है, वह कहां से आया है.. जिस तरीके से भारतीय नेता जनता को सुनहरे सपने दिखाते है और देश को लूटते हैं, बाबा भी उनसे अलग नहीं है। क्या बाबा से यह सवाल नहीं किया जाना चाहिए उन्होंने यह अकूत पैसा किस तरह से कमाया है.. बाबा नेताओं और कारोबारियों को आय की घोषणा करने के लिए कह रहे हैं लेकिन बाबा ने अपनी आय और उसके स्त्रोतों की घोषणा कितनी बार की हैय..अगर इसका उत्तर नहीं है तो किसी बाबा को जनता की भावनाओं से खलने का अधिकार नहीं है...।
इस बात में कोई शक नहीं है कि बाबा ने योग की खोयी प्रतिष्ठा को फिर से लोगों के दिलों में जगह दिलाई है लेकिन बाबा ने इसे कारोबार में तब्दील कर लिया जो गलत है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को कटघरे में खड़े करने वाले बाबा आज खुद बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तरह से कारोबार कर रहे हैं। बाबा ने एक बार कहा था कि पूरे भारत स्वस्थ किए बगैर वह भारत से बाहर योग केन्द्र नहीं खोलेंगे लेकिन बाबा का वादा खोखला निकला। बाबा ने स्कॉटलैंड के ...में मूल्य वाला एक टापू खरीदा है और अमेरिका के में भी....एकड़ जगह योग केन्द्र खोलने के लिए खरीदी है। बाबा ने भारत में योग के प्रचार-प्रसार का काम अपने चेलों के भरोसे छोड़ दिया है और खुद विदेशों में दौरे कर रहे हैं। जल्दी ही बाबा नेपाल और भूटान में भी योग केन्द्र खोलने वाले है।
सार्वजनिक जीवन में आचरण की शुद्धता के पैरोकार बाबा और विवादों का चोलीदामन का साथ रहा है। फिल्म अदाकारा शिल्पा शेट्टी से बाबा एक कारोबारी की तरह उलझे जो साबित करता है कि बाबा योग पर अपना एकाधिकार समझते हैं। संभावना शेठ और दूसरी अभिनेत्रियों को भी बाबा समय –समय पर नैतिकता का पाठ पढाते रहते हैं। देश को विश्व महाशक्ति बनाने का दावा करने वाले बाबा ने हाल ही में खाप पंचायतों का भी समर्थन किया। इससे पहले बाबा समलैंगिकता के खिलाफ भी भड़ास निकाली थी। दरअसल भारतीय राजनीति का किंगमेकर बनने के सपने देखने वाला यह बाबा समय-समय पर लच्छेदार भाषा में बयान देकर चर्चा में रहना चाहता है।
बाबा ने कारोबार में भी नैतिकता को ताक पर रख दिया है। दिव्य योग फार्मेसी में मजदूरों को निर्धारित दर से भी कम मजदूरी दी जा रही थी। बाबा की फार्मेसी में बनी दवाओं में पशुओं के अंश मिले होने के आरोप भी लगे। बाबा आम आदमी की बात करते हैं लेकिन उनके शिविरों की उंची फीस और महंगी दवाएं किन लोगों के लिए हैं, यह समझना मुशकिल नहीं है। असल में शिविरों में आती भीड़ और टीवी पर केखने वाले दर्शकों की तादाद को देखकर बाबा को वहम हो गया है। उसी मीडिया ने बाबा को सपने दिखाएं हैं जो भारत में केवल शाइनिंग इंडिया खोजता है। बाबा शायद भूल रहे हैं कि भीड़ तो अभिनेताओं की रैलियों में भी जुटती हैं लेकिन वह वोट नहीं डालती हैं। संजय दत्त। भारत का मतदाता कम से कम इतना समझादार जरूरू है।
भगवाधारी बाबाओं और भारतीय राजनीति का साथ पुराना रहा है लेकिन इस बाबा ने पूरी रणनीति के साथ रणभेरी बजाई है। बाबा का कहना है कि वह कोई राजनीतिक पद धारण नहीं करेंगे। असल में बाबा जानते हैं कि इस देश की जनता की नजरों में त्याग की कितनी महता हैं। सोनिया गांधी ने इसी त्याग के बल पर राहुल गांधी के लिए सात रेसकोर्स रोड़ का रास्ता साफ कर दिया और अपने इशारों पर सरकार भी चला रही हैं। बाबा भी इसी तर्ज पर चाणक्य बनना चाहते हैं और इसकी भूमिका तैयार करने के लिए वह राष्ट्रवाद की बासी कढी में योग की आंच से उबाल लाने का प्रयास कर रहे हैं।
असल में इस देश बाबा जैसे हसीन दावे करने वाले राजनेता पांच साल में एक बार आते हैं।पार्टी रंग निशान और नारे में तो बदलाव हता है लेकिन बुनियादी हालात नहीं सुधरते हैं। गरीबों को नाम लेने वालो के घर की कोठरियां भर जाती हैं लेकिन गरीबी नहीं मियती है। धीरे-धीरे बाबा का भाजपा प्रेम भी उजागर हो रहा है। भ्रष्टाचारियों को सरेआम फासी देने के जोशीले आह्वान लेकिन आसपास चारियों की फौज जमी हैं। क्या रामदेव का साम्राज्य किसी काले धन के पहाड़ से कम है।


योग विधियों के पेटेंट का अनाधिकृत उपयोग का बाबा ने कारोबारी की तरह मुकदामा दायर किया है। भगवा सत्ता के गलियारे में पहुंच के चलते बाबा , योग मानव को स्वस्थ रखनेका अनोखा है लेकिन सामयिक योगी बा बा कारोबारी मढगंढत दावों से कालिख पोत रहे हैंय़ अगर योग से सब बीमारियां ठीक हो सकती हैं तो बाबा क्यों दवाएं बेच रहे हैं। बाबा करोड़ों का आश्रम चला रहे हैं और काले
धन को वापस लाने की बात कर रहे हैं। दिव्य योग मंदिर योग ट्रस्ट के स्वामित्व पर भी समय-समय पर सवाल उठते रहत हैं। पुणे के नजदीक लोनावाला में राजनीति और प्रशासन में ऊंची पहुंच के चलते रसूख के चलते 85 मिलीयन लोग फोलो करते हैं

बाबा भी लौकी, टमाटर, खीरा, ज्वार और दूसरी सब्जियों का जूस पैकिंग के साथ बेच रहे हैं। क्या फर्क पड़ता है कि कोई जनता को बहुराष्ट्रीय कंपनी लूट रही है या कोई बाबा लूट रही हैं। एक मिलियन बराबर
शुरूआत में बाबा ने भी आम भारतीय नेताओं की तरह जनता को सपने दिखाएं मसलन पूरे देश को रोग मुक्त बनाया जाएगा, दिव्य योग फार्मेसी की दवाएं सस्ती दर पर मुहैया करवायी जाएंगी। समय बीतने के साथ बाबा की लोकप्रियता
बाबा खुद भ्रष्टाचारियों की फौज से घिरे हैं लेकिन लोगों को भ्रष्टाचारमुक्त समाज के सब्जबाग दिखा रहे हैं। बाबा
दरअसल धुर दक्षिणपंथी राजनीति की अपनी सीमाएं हैं और एक निश्चित सीमा के बाद यह रूक जाती है। शिवसेना और भाजपा इसका उदाहरण हैं। सिवसेना महा से बाहर नहीं निकल पाई और भआजपा धीरे-धीरे धर्मनिरपेक्षदा का लबादा ओढने का प्रयास कर रही है। पिछले लोक में सने विकास ते प्रबलता से ,
बाबा क्यों दवा बेच रहे हैं अगर फल, सब्जियां, फलों के जूस, बिस्कुट, क्रीम, पाउडर और बालों का सुगंधित तेल भी बेचेंगे
. रामदेव अब योगाचार्य के साथ-साथ सब्जियों, फलों और कास्मेटिक बनानेवाली कंपनी के सीएमडी बन गये हैं
जो सच्चाई है वो तो सामने आ जाएगी अभी दुनिया में अभी कोई टकसाल नहीं बनी है जो
योग से सब बीमारियां ठीक हो जाती हैं तो जीवन मरण का प्रश्न आज पूरी दुनिया के सामने है और दुनियाभर के शासक वर्ग आज विश्व पूंजी के हितों को साधने या उसकी पैरोकारी करने में मशगूल हैं। खुद को बचाये रखने और अपनी पूंजी के संरक्षण के लिए एक अद्द बाजार की आवश्यकता ने भौगोलिक आधार पर बाजार को संगठित करने में अक्षम पाने पर स्थानीय पूंजीपतियों को धर्म के बाजार में बाबाओं के आगे दण्डवत होकर पहुंचने का रास्ता सुझाया है। आये दिन शहर दर शहर सम्मेलनों और प्रवचनों के लिए लगने वाले तम्बूओं को प्रायोजित करते हुए अपने उत्पादों को एक निश्चित लेबल देकर बेचने की उनकी इस तात्कालिक (जो कि वर्तमान दौर के चलते भविष्य में असफल हो जाने वाली है) कोशिश ने बाबाओं की, योगसाधकों की फौज खड़ी कर दी है। योगयाधकों और शरीर सौष्ठव को बनाये रखने वाले नुस्खे बहुराष्ट्रीय निगमों के उत्पादों के लिए भी एक खास तरह का बाजार तैयार करने में सहायक हो रहे हैं।
बाबा और व्यापार दो अलग शब्द ही नहीं अलग तरह के कार्य हैं. संत का काम व्यापार नहीं है. अगर संत व्यापार की बात करता है और कंपनियों के सामने खुद विकल्प देता है तो वह संत नहीं रह जाता. क्योंकि व्यापार में तो टैक्स चोरी से लेकर घूस खाने खिलाने के सारे काम करने पड़ते हैं. क्या कोई संत ऐसा कर पायेगा?
फिर भी इस देश की तस्वीर नहीम बदलती हैं, जनता बदलाव तो चाहती है लेकिन उसके पास विकल्प कहां है ईमानदार, ऱाष्ट्रप्रेमी, नैतिक नायकों की कतार कहां है। बाबा के पास कौनसी कतार है। क्या बाबा का दामन पाक साप है। नेताओं की बदनीयति प सवाल उठा रहे बाबा का गुरी कहां है। बाबा ने भी चैनल खरीद लिया है। मीडिया की महता समझ आ गाई बाबा को गलतफहमी आखिर लोकतंत्र इतना तो हक है ही। ह्यूस्टन में 300 एकड़ जगह खरीदी हा
कांग्रेस को खास परेशानी नहीं और भाजपा जानती है केशवकुंज के जरिए साध लेती है गठबंधन की राजनीति में बड़े-बड़े सूरमां चले आते हैं कुर्सी के पास। सभी संसदीय सीटों पर भाजपा नहीं कर वाम मुख्यधारा की पार्टियां नहीं कर पाई वह काम बाबा करने चले महज टीवी कैनरों पर भीड़ देखकर जो औसत को भी नायक की तरह पेश करते हैं, ऐसा ही मायावाती ने और मुंह की खानी पड़ी थी। बाबा किन लोगों का मोहरा इसका साफ इशारा सकॉटलैंड कर रहे हैं।सियासी डगर मुल्लों के बगैर संभव नहीं है। जमातुल उलेमा ए हिंद को मौलाना महमूद मदनी के आमंत्रण पर सालाना जलसें में जाना असल में बाबा यह बात साबित करना चाहते हैं कि वह पहलेके भगवा धारियों से अलग हैं और आरबीजेपी की छाया से मुक्त बाबा हैं। मौलाना कल्बे रूशैद रिज्वी मुस्लिम धर्मगुरू,भारत 2014 तक 50 करोड़ भारत स्वाभिमानट्रस्ट सदस्य बाबा अहंकार से कि राजनिति में आए गुड़ और गुलगुले फिर बाबाराजनित में क्या करने आ रही है संभावना सेठ और कश्मीरा शाह बाबा बी अभिनेताओ में कि उनके दर्शक लेकिन बाबा शायद भूल रहे हैं कि इस देश की जनता इतनी भू भोली नहीं हैजो इंदिरा को बाबा किस खेत की मूली है। जो इंडिया इंक के लोग वातानूकिलत कमरों में बाबा के कार्यक्रम देखकर वह वोट डालने में बी नहीं जाता है। भारत तक न तो बाबा का टीवी पहुंचा है और न इन मेहनती लोगों को बाबा रामदेव मार्का योग की आवश्यकता है। सियासी डगर बड़े-बड़े राजनिति के गढ ढहाने चले हैं।
स्वदेशी उत्पादन कोठीक से चलाने के लिए ही आजादी बचाओं अभियान के लोगों को साथ जोड़ लिया पूर्व प्रवक्ता राजीव दीत्रित अब आंदोलन दो फाड़ बाबा की मेहरबानी और कुशलता से
वैसे बाबाओं और राजनीति का नाता नया नहीं है जयगुरीदेव बाबा धीरेन्द्र ब्रहमचारी चन्द्रास्वामी आद्त्यनाथ आमा भारती चांदनाथ से लेकर बड़ी सूची हैं सवाल यह कि सन्यासी बाबा क्यों राजनिति की ओर दौड़ते हैं। यह बाबा को भोग से दूर लेकिन उनमें खुद आकंठ भारतकी ऋशि परम्परा परकलंक mnc की एंजेंट अप्रत्यक्ष एजेंट हैं।
गुरू शंकरदेव गूरू को कहीं और किसी भी हाल में नहीं याद करते हैं