Wednesday, October 26, 2011

दवा कारोबार पर बढ़ता विदेशी कब्जा

दवा कारोबार पर बढ़ता विदेशी कब्जा
देश के दवा कारोबार पर विदेशी कंपनियों का वर्चस्व बढ़ता ही जा रहा है, एक के बाद एक छोटी-बड़ी भारतीय दवा कंपनियाँ विदेशी कंपनियों के हाथो बिकती जा रही है, जिससे भारतीय दवा कंपनियों पर विदेशी कंपनियों का कब्जा शुरू हो गया है
वर्ष 2001 में दवा क्षेत्र को सौ फीसदी विदेशी निवेश के लिये खोला गया था और उस समय से लेकर अब तक कई भारतीय कंपनियाँ विदेशी हाथो में जा चुकी है छोटी कंपनियों में निर्णायक हिस्सेदारी खरीदने का चलन तो नब्बे के दशक से ही शुरु हो गया था लेकिन बड़ी कंपनियों के बिकने का सिलसिला पिछले पाच साल में जोर पकड चुका है इस कड़ी में सबसे पहले अगस्त 2006 में नामी भारतीय दवा कम्पनी मैट्रिक्स लैब को अमेरिकी कम्पनी मायलान ने खरीदा था इसके बाद अप्रैल 200८ में डाबर फार्मा का फ्रेसियस कैबी ने जून २००८ में रैनबेक्सी का दायची सैक्यो ने, जुलाई 2008 में शांता बायोटेक का सनोफी अवन्तिस ने, दिसम्बर २००९ में आर्किड कैमिकल्स का होसपीरा ने और मई २०१० में पीरामल हेल्थकेयर का एबट लैबोरेट्रीज ने अधिग्रहण कर लिया था पीरामल हेल्थकेयर की गिनती देश की दस सबसे बड़ी कंपनियों में होती थी रैबेक्सी के बाद विदेशी हाथो में जाने वाली यह दूसरी बड़ी कम्पनी है
गौर करने लायक बात यह है कि पीरामल और रैनबेक्सी जैसी कंपनियों को खरीदने के बाद विदेशी कम्पनियाँ भारतीय दवा बाजार में चोटी पर पहुंच गई है
मिसाल के तौर पर पीरामल के अधिग्रहण के बाद अमेरिका कि एबट सात फीसद हिस्सेदारी के साथ भारत कि सबसे बड़ी दवा कंपनियों में से तीन विदेशी है और यह तादाद बढ़ने वाली है क्योकि विदेशी कम्पनियाँ किसी भी कीमत पर घरेलू कंपनियों को खरीदना चाहती है
सवाल उठता है कि भारतीय दवा कम्पनीयों में बहुराष्टीय कंपनियों कि इस कदर दिलचस्पी के क्या कारण है? असल में भारत और चीन समेत दुनिया के तमाम विकासशील देशो में लोगों कि आमदनी बढ़ने के साथ ही स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता भी बढती ही जा रही है २०२० तक उभरते देशो में दवा कारोबार चार सौ अरब डालर को पार कर जाएगा और इसमे अकेले भारतीय बाजार कि हिस्सेदारी चालीस अरब डालर से ज्यादा होगी विकसित देशो के दवा बाजार में विस्तार कि संभावनाए नगण्य है भारी प्रर्तिस्पर्धा के चलते दवा कंपनियों के मुनाफे में कमी आ रही है और विकसित देशो का दवा कारोबार महज एक फीसद कि रफ्तार से बढ़ रहा है जाहिर है कि कोई भी बहुराष्टीय कम्पनियाँ अपार सभावनाओं वाले इस बाजार को अनदेखा नहीं कर सकती ये बहुराष्टीय कम्पनियाँ दो रणनीतियो पर काम करती है पहली किसी भी कीमत पर स्थानीय दवा कंपनियों का सफाया करके घरेलू बाजार पर कब्जा करना और दूसरी एकाधिकार होने के बाद दवाओं की कीमतों में इजाफा करके मुनाफ़ा कमाना २००७ में भारतीय दवा बाजार में विदेशी कंपनियों कि हिस्सेदारी पन्द्रह फीसद थी वही २०१० में यह आकड़ा पचीस फीसद को पार कर गया है जानकारों के मुताबिक़ आगामी पाँच सालो में भारत के आधे से ज्यादा दवा कारोबार पर विदेशी कंपनियों का कब्जा हो जाएगा दिक्कत यही से शुरू होती है बहुराष्टीय कम्पनियाँ बाजार पर नियंत्रण करने के बाद कीमतों में इजाफा करना शुरू कर देती है जब एक बार ये कम्पनियाँ दवाओं के दाम बढाना शुरू करेगी तो कम संसाधनों वाली छोटी दवा कम्पनियाँ अपने आप दवाब में आ जायेगी ऐसे में सारा खामियाजा गरीब जनता को भुगतना पडेगा जिसकी जेब पर महंगी दवाओं के जरिये डाका डाला जाएगा अब बहुराष्टीय कम्पनियाँ भारतीय दवा कम्पनियों को हथिया कर एक तीर से दो निशाने साधना चाहती है

भारत जैसे विकासशील देश में मरीज के लिये दवाओं कि कीमत बेहद अहम है राष्टीय नमूना सर्वेक्षण के मुताबिक़ हमारे यहाँ इलाज के कुल खर्च में अस्सी फीसद लागत दवाओं कि होती है जिस देश में अस्सी करोड लोग दो जून कि रोटी का भी जुगाड नहीं कर पाते हो वहाँ पर महंगी दवाएं कितने लोग खरीद पाएंगे, इसका अनुमान लगाया जा सकता है
भारतीय दवा उद्योग के वजुद पर छाए इस संकट के गंभीर परिणाम देश को भुगतने पड़ सकते है अभी तो केवल पाचँ कम्पनिया बिकी है, लेकिन बहुराष्टीय कंपनियों ने डाक्टर रेड्डीज, अरबिंदो फार्मा, सिप्ला और जायडस कईदिला समेत बीस बड़ी भारतीय दवा कम्पनिया पर नजरे गडा रखी है घरेलू दवा कम्पनियों को बहुराष्टीय कम्पनिया इतनी आकर्षक कीमत कि पेशकश कर रही है जो भविष्य में इस कारोबार से होने वाली आमदनी और अनुमानित वृद्दि के मुकाबले कही ज्यादा है जाहिर है सरकार के असहयोगी रवैये के कारण दवा कम्पनिया ज्यादा मुनाफे वाले क्षेत्रो कि और रुख कर रही है अगर देशी कंपनियों के अधिग्रहण का सिलसिला जारी रहा तो सस्ती जेनेरिक दवाओं का सकट गहरा जाएगा बहुराष्टीय कम्पनिया बाजार में हिस्सेदारी बढते हि कीमतों में बढोतरी करेगी जनता को इस संकट से बचाने के लिये सरकार को दवा उद्योग की सेहत सुधारने कि और ध्यान देना होगा

अनिल
शोधकर्त्ता है)
संपर्क - 139,कावेरी छात्रावास, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय,नई दिल्ली-67
ईमेल - anil.ajger@gmail.com, mob 9650214651

Monday, October 10, 2011

भारत में अंग्रेज़ी बनाम हिंदी

भारत में अंग्रेज़ी बनाम हिंदी

दिल्ली में, जहाँ मैं रहता हूँ उसके आस-पास अंग्रेज़ी पुस्तकों की तो दर्जनों दुकाने हैं, हिंदी की एक भी नहीं। हक़ीक़त तो यह है कि दिल्ली में मुश्किल से ही हिंदी पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी। टाइम्स आफ इंडिया समूह के समाचार पत्र नवभारत टाइम्स की प्रसार संख्या कहीं ज़्यादा होने के बावजूद भी विज्ञापन दरें अंग्रेज़ी अख़बारों के मुकाबले अत्यंत कम हैं। इन तथ्यों के उल्लेख का एक विशेष कारण है। हिंदी दुनिया में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली पाँच भाषाओं में से एक है। जबकि भारत में बमुश्किल पाँच प्रतिशत लोग अंग्रेज़ी समझते हैं।

कुछ लोगों का मानना है यह प्रतिशत दो से ज़्यादा नहीं है। नब्बे करोड़ की आबादी वाले देश में दो प्रतिशत जानने वालों की संख्या 18 लाख होती है और अंग्रेज़ी प्रकाशकों के लिए यही बहुत है। यही दो प्रतिशत बाकी भाषा-भाषियों पर अपना प्रभुत्व जमाए हुए हैं। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेज़ी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो है ही, उससे भी ज़्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है।

इंग्लैंड में मुझसे अक्सर संदेह भरी नज़रों से यह सवाल पूछा जाता है तुम क्यों भारतीयों को अंग्रेज़ी के इस वरदान से वंचित करना चाहते हो जो इस समय विज्ञान, कंप्यूटर, प्रकाशन और व्यापार की अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है? तुम क्यों दंभी-देहाती (स्नॉब नेटिव) बनते जा रहे हो? मुझे बार-बार यह बताया जाता है कि भारत में संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेज़ी क्यों ज़रूरी है, गोया यह कोई शाश्वत सत्य हो। इन तर्कों के अलावा जो बात मुझे अखरती है वह है भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेज़ी का विराजमान होना। क्योंकि मेरा यकीन है कि बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति ज़िंदा नहीं रह सकती।

आइए शुरू से विचार करते हैं। सन 1813 में ईस्ट इंडिया कंपनी के बीस साल चार्टर का नवीकरण करते समय साहित्य को पुनर्जीवित करने, यहाँ की जनता के ज्ञान को बढ़ावा देने और विज्ञान को प्रोत्साहन देने के लिए एक निश्चित धनराशि उपलब्ध कराई गई। अंग्रेज़ी का संभवतः सबसे खतरनाक पहलू है अंग्रेज़ी वालों में कुलीनता या विशिष्टता का दंभ।

कोढ़ में खाज का काम अंग्रेज़ी पढ़ाने का ढंग भी है। पुराना पारंपरिक अंग्रेज़ी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है। मेरे भारतीय मित्र मुझे अपने शेक्सपियर के ज्ञान से खुद शर्मिंदा कर देते हैं। अंग्रेज़ी लेखकों के बारे में उनका ज्ञान मुझसे कई गुना ज़्यादा है। एन. कृष्णस्वामी और टी. श्रीरामन ने इस बाबत ठीक ही लिखा है जो अंग्रेज़ी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं है और जो भारतीय साहित्य के पंडित हैं वे अपनी बात अंग्रेज़ी में नहीं कह सकते। जब तक हम इस दूरी को समाप्त नहीं करते अंग्रेज़ी ज्ञान जड़ विहीन ही रहेगा। यदि अंग्रेज़ी पढ़ानी ही है तो उसे भारत समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़िए न कि ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से।

चलो इस बात पर भी विचार कर लेते हैं कि अंग्रेज़ी को कुलीन लोगों तक मात्र सीमित करने की बजाय वाकई सारे देश की संपर्क भाषा क्यों न बना दिया जाए? नंबर एक, मुझे नहीं लगता कि इसमें सफलता मिल पाएगी (आंशिक रूप से राजनैतिक कारणों से भी), दो, इसका मतलब होगा भविष्य की पीढ़ियों के हाथ से उनकी भाषा संस्कृति को जबरन छीनना। निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती। भारत, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया की तरह महज़ भाषाई समूह नहीं है। यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़ें इतनी गहरी है कि उन्हें सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई।

संपर्क भाषा का प्रश्न निश्चित रूप से अत्यंत जटिल है। यदि हिंदी के लंबरदारों ने यह आभास नहीं दिया होता कि वे सारे देश पर हिंदी थोपना चाहते हैं तो समस्या सुलझ गई होती। अभी भी देर नहीं हुई है। हिंदी को अभी भी अपने सहज रूप में ही बढ़ाने की ज़रूरत है और साथ ही प्रांतीय भाषाओं को भी, जिससे कि यह भ्रम न फैले कि अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की जगह हिंदी साम्राज्यवाद लाया जा रहा है। यहाँ सबसे बड़ी बाधा हिंदी के प्रति तथाकथित कुलीनों की नफ़रत है। आप बंगाली, तमिल या गुजराती पर नाज़ कर सकते हैं पर हिंदी पर नहीं। क्योंकि कुलीनों की प्यारी अंग्रेज़ी को सबसे ज़्यादा खतरा हिंदी से है। भारत में अंग्रेज़ी की मौजूदा स्थिति के बदौलत ही उन्हें इतनी ताक़त मिली है और वे इसे इतनी आसानी से नहीं खोना चाहते।